भारत के इतिहास में कुछ ऐसी कहानियाँ दफन हैं, जो आज भी वर्तमान की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर को प्रभावित कर रही हैं। ऐसी ही एक कहानी जुड़ी है हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले और दुनिया की सबसे परिष्कृत अफीम की खेती से।
सिरमौर
औपनिवेशिक शोषण और ‘काला सोना’
ब्रिटिश काल में सिरमौर अफीम की खेती का एक प्रमुख केंद्र था। अंग्रेजों ने यहां के किसानों से जबरन अफीम उगवाई, जिसे चीन और अन्य देशों को निर्यात किया जाता था। इसे ‘काला सोना’ कहा जाता था क्योंकि यह ब्रिटिश व्यापार के लिए सोने से भी अधिक मूल्यवान था।
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समृद्धि से पिछड़ेपन तक का सफर
आजादी के बाद संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन के दबाव पर अफीम की खेती पर रोक लगी। सिरमौर, जो कभी इस खेती से समृद्ध था, धीरे-धीरे आर्थिक रूप से पिछड़ गया। विडंबना यह है कि आज उसी क्षेत्र के लोग मजदूरी के लिए शिमला के ऊपरी इलाकों की ओर पलायन कर रहे हैं।
अफीम: नशा नहीं, दवा का भंडार
अफीम का 90% हिस्सा दवाओं के निर्माण में उपयोग होता है। इससे मॉर्फिन, कोडीन और थेबाइन जैसी जीवन रक्षक दवाएं तैयार होती हैं। भारत, जो कभी अफीम का प्रमुख उत्पादक था, अब इसे विदेशों से आयात करता है, जिससे बड़ी विदेशी मुद्रा खर्च होती है।
परमिट आधारित खेती की आवश्यकता
राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में सरकार की अनुमति से अफीम की खेती की जा रही है। सिरमौर की जलवायु और मिट्टी भी इस फसल के लिए उपयुक्त है। यदि यहां परमिट आधारित खेती शुरू की जाए, तो यह स्थानीय किसानों की आय बढ़ाने के साथ दवा उद्योग के लिए भी सहायक सिद्ध होगी।
आत्मनिर्भर भारत की दिशा में कदम
अफीम की खेती को नशे से जोड़कर नहीं, बल्कि औषधीय दृष्टिकोण से देखना चाहिए। लाइसेंस और सख्त निगरानी के तहत सिरमौर में इस खेती को पुनः आरंभ करना न केवल किसानों के उत्थान बल्कि देश की चिकित्सा आत्मनिर्भरता की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।
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