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ऑपरेशन सिंदूर पर पोस्ट करने वाले प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत , SIT जांच के आदेश

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नई दिल्ली

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा पर बहस के केंद्र में प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद


मामले की पृष्ठभूमि
अशोका यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर और राजनीतिक विज्ञान विभाग के प्रमुख अली खान महमूदाबाद को 18 मई 2025 को हरियाणा पुलिस ने दिल्ली से गिरफ्तार किया था। यह गिरफ्तारी ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर उनकी सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर की गई थी, जिसमें उन्होंने महिला सैन्य अधिकारियों की प्रेस ब्रीफिंग को “दिखावा” और “ढोंग” बताया था। इस पोस्ट को लेकर हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष रेनू भाटिया और बीजेपी युवा मोर्चा के महासचिव योगेश जठेरी ने शिकायत दर्ज कराई थी ।

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सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
21 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने अली खान महमूदाबाद को अंतरिम जमानत प्रदान की। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने उनकी पोस्ट की भाषा की आलोचना करते हुए इसे “डॉग व्हिसलिंग” कहा, जो सांकेतिक भाषा में विवादास्पद संदेश देने का संकेत देता है। कोर्ट ने उन्हें निर्देश दिया कि वे जांच के दौरान संबंधित विषयों पर कोई ऑनलाइन लेख या भाषण न दें और जांच में पूर्ण सहयोग करें ।


SIT जांच के आदेश
कोर्ट ने हरियाणा के डीजीपी को आदेश दिया कि 24 घंटे के भीतर एक विशेष जांच टीम (SIT) का गठन किया जाए, जिसमें वरिष्ठ IPS अधिकारी हों, जो हरियाणा या दिल्ली से न हों। इस टीम में कम से कम एक महिला अधिकारी का होना अनिवार्य किया गया है। SIT का उद्देश्य प्रोफेसर महमूदाबाद की पोस्ट की वास्तविक मंशा और प्रभाव की जांच करना है ।


शैक्षणिक समुदाय और छात्रों की प्रतिक्रिया
अशोका यूनिवर्सिटी के छात्रों और शिक्षकों ने प्रोफेसर महमूदाबाद के समर्थन में रोटेशनल शिफ्ट में विरोध प्रदर्शन किए। छात्रों ने विश्वविद्यालय से अपील की कि वह अपने प्रोफेसर के साथ खड़ा हो और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करे ।


राजनीतिक प्रतिक्रियाएं
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रोफेसर की गिरफ्तारी की निंदा करते हुए कहा कि यह सरकार की आलोचना से डर को दर्शाता है। वहीं, समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने भी इस कार्रवाई की आलोचना की और इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया ।


प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद की गिरफ्तारी और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन की आवश्यकता को उजागर करता है। यह मामला भारत में अकादमिक स्वतंत्रता और विचारों की अभिव्यक्ति पर एक महत्वपूर्ण बहस की शुरुआत कर सकता है।

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