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सिरमौर के बाद सोलन में रतन पाल के अध्यक्ष बनाने पर संगठन में क्यों हो रही है बड़ी चर्चा

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Himachalnow / सोलन

पांचों गंवाई विधानसभा सीटें , दो बार हारे खुद भी , तोहफे में दिया अध्यक्ष पद

हिमाचल प्रदेश भाजपा उल्टा बांस बरेली की कहावत पर बिल्कुल खरी उतरती हुई नजर आ रही है। सिरमौर में जहां तीसरी बार वैश्य समुदाय से ताल्लुक रखने वाले को जिला अध्यक्ष बनाया गया है वहीं सोलन विधानसभा चुनाव में अपनी क्लीन स्वीप करने वाले जिला नेतृत्व को तोहफे में फिर से अध्यक्ष पद का ताज पहना दिया है।

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सवाल तो यह उठ रहा है कि डमी चुनाव अधिकारी आखिर किसके इशारे पर बेबस नजर आए।

बैक फुट पर लंबे समय से चल रही सोलन भाजपा ने उसे विधानसभा क्षेत्र को भी इग्नोर कर दिया जिसने संसदीय चुनाव में सबसे बेस्ट परफॉर्मेंस दी थी। भाजपा हाई कमान चाहता तो दून के पूर्व विधायक रहे परमजीत सिंह पम्मी को अध्यक्ष बनाकर एक बड़ा डैमेज कंट्रोल कर सकते थे। मगर अध्यक्ष पद के चुनाव ने तो यह स्पष्ट कर दिया है कि हम तो डूबे हैं सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे। सिरमौर में शिशु भाई धर्मा और सोलन में पुरुषोत्तम गुलरिया का नाम भाजपा संगठन में विशेष चर्चा का विषय बना हुआ है। चर्चा तो यह भी है कि क्या सोलन और सिरमौर में भाजपा के पास कोई चेहरा ही नहीं था। या फिर सोलन में किसी दूसरे की एंट्री होना दिग्गजों को नागवारा था। अब यदि थोड़ा फ्लैश बैक पर नजर दौडाई जाए तो जानकारी मिली है कि भाजपा संगठन की करोड़ों की प्रिंटिंग शिमला सोलन से ही होती है। यह किन की प्रेस में छपता है यह पूरा सोलन और शिमला जानता है। असल में पार्टी का जो फंड आता है उसके मैनेजमेंट में सोलन के ही कुछ खास नेता होते हैं। ऐसे में अपरोक्ष रूप से कई सवाल खड़े हो रहे हैं।

हैरानी तो इस बात की है कि बनाए गए नए अध्यक्ष रतन पाल खुद भी दो बार अर्की से चुनाव हार चुके हैं। इन्हीं की अध्यक्षता में भाजपा प्रत्याशी रहे गोविंद राम अपनी सीट पर तीसरे नंबर पर रहे। सोलन भाजपा में बहुत से ऐसे चेहरे हैं जो नाम न छापने की शर्त पर सवालिया निशान भी लगा रहे हैं कि आखिर क्या सोलन में कोई डिजर्विंग नेता नहीं था।

बरहाल चिंता और चिंतन का विषय यह है कि जहां विधानसभा चुनाव काबिलियत के दम पर लड़ा जाता है तो वही संसदीय चुनाव में केवल और केवल मोदी फैक्टर भाजपा को जीत दिलाता है। लिहाजा कहा जा सकता है की संसदीय जीत का सेहरा ना तो जिला अध्यक्ष के सर बांधा जा सकता और ना ही जीतने वाले संसद के । क्योंकि यह क्रेडिट केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जगत प्रकाश नड्डा की रणनीति को ही जाता है तो फिर जिस अध्यक्ष के नेतृत्व में पांचो विधानसभा सीटें हारि गई हो तो उसे किस बिना पर सम्मानित किया गया है यह विषय इस समय भाजपा के खेमों में चर्चा का विषय बना हुआ है। ऐसे में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में यदि समय रहते इस पूरी चुनावी प्रक्रिया की गहनता से छानबीन नहीं की तो निश्चित ही 2027 का रन भाजपा के लिए फिर से अपनों के बीच चुनौती बनेगा।

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