नाहनः ऐतिहासिक एवं प्रसिद्ध धार्मिक स्थल श्री रेणुकाजी को समर्पित रेणुका उत्सव का आगाज 11 नवंबर को होगा. अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह उत्सव 15 नवंबर तक चलेगा. इस अवसर पर जहां मां रेणुकाजी का पुत्र भगवान परशुराम के साथ भव्य मिलन होगा तो वहीं हजारों श्रद्धालु भी मां-पुत्र के इस मिलन को देखने के लिए उत्सुक हैं.
अंतरराष्ट्रीय श्री रेणुकाजी मेले में देवताओं की चार पालकियां शिरकत करेंगी, जिसमें जामू, कटाह शीतला, महासू व मंडलाहां स्थित भगवान परशुराम की पालिकयों की ददाहू बाजार से शोभायात्रा निकलेगी. 11 नवंबर को मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू उत्सव के शुभारंभ कर इस परंपरा को निभाएंगे. जहां वह देव पालकियों को कंधा देकर श्री रेणुकाजी मेले का विधिवत शुभारंभ करेंगे. मुख्यमंत्री भव्य शोभायात्रा की आगवानी भी करेंगे.
चढ़ती पालकी के दर्शन पाना अति शुभ
मान्यता के अनुसार शोभायात्रा के दौरान देवताओं की चढ़ती पालकी के दर्शन पाना अति शुभ व कल्याणकारी माना जाता है. पालकी के समक्ष मांगी गई मुराद अवश्य पूरी होती है. कुछ लोग देवताओं की पालकी के नीचे से गुजरना भी शुभ मानते हैं. इसी दिन सांझ ढलने से पूर्व त्रिवेणी घाट के संगम तट पर मां पुत्र का ऐतिहासिक व पारंपरिक मिलन होगा. मेले के शुभारंभ के बाद रेणुकाजी तीर्थ में रात्रि जागरण की परंपरा आज भी कायम है.
सदियों पुरानी परंपरा निभाते पहुंचता है राजघराना
श्री रेणुकाजी मेले की सदियों पुरानी परंपरा को सिरमौर राज परिवार आज भी पूर्व की भांति निभाता चला आ रहा है. वर्तमान में राज परिवार के वंशज व राजघराने के वरिष्ठ सदस्य कंवर अजय बहादुर सिंह अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर गिरि नदी के तट पर भगवान परशुराम की प्रतीक्षा करते हैं.
देवताओं की पालकी को अपने कंधे पर उठाकर पंडाल तक लाते हैं. सदियों पुरानी यह परंपरा राज परिवार के लिए आज भी विशेष महत्व रखती है. कंवर अजय बहादुर सिंह ने बताया कि भगवान परशुराम उनके कुलिष्ठ हैं. भगवान परशुराम की उनके परिवार पर विशेष कृपा है. वह इस परंपरा को किसी भी सूरत में निभाना नहीं भूलते.
सोई हुई नारी के झील रूपी आकार में विद्यमान हैं मां रेणुकाजी
मान्यता है कि त्रेयता युग में महर्षि जमदग्नि का विवाह राजा प्रसेनजीत की पुत्री राजकुमारी रेणुकाजी से हुआ. इन दिनों सहस्त्रबाहू नाम के आर्यव्रत शासक के अत्याचार बढ़ रहे थे. इन्हीं अत्याचारों से तंग आकर महर्षि जमदग्नि भी अपनी पत्नी के साथ रेणुका के समीप तपे के टीले पर रहने लगे. जहां दोनों ने भगवान विष्णु की घोर तपस्या की.
तपस्या के प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने महर्षि व रेणुका को दर्शन दिए और भगवान से उनके घर में जन्म लेने का वरदान प्राप्त किया. जहां रेणुका मां के गर्भ से परशुराम ने भगवान विष्णु के छठे अवतार में जन्म लिया. ऋषि जमदग्नि के पांच पुत्र थे, जिनमें भगवान परशुराम सबसे छोटे थे. परशुराम बचपन से ही तेजस्वी थे और यौवनावस्था तक आते-आते वह कई विद्याओं में निपुण हो गए. इसी बीच निरंकुश शासक सहस्त्रबाहू का राज्य विस्तार भी रेणुकाजी तक हो गया.
इस शासक ने रेणुकाजी के समीप ही अपना अस्थायी डेरा डाल रखा था. मां रेणुका प्रतिदिन महर्षि के लिए इसी क्षेत्र में बहने वाली गिरि गंगा नदी से पवित्र जल लेने पहुंचती थीं. एक दिन कुटिल मन सहस्त्रबाहू अपनी विशाल सेना लेकर ऋषि के आश्रम में भोजन पर पहुंच गया. जहां सहस्त्रबाहू व उसकी विशाल सेना को ऋषि जमदग्नि ने भगवान इंद्रदेव के आशीर्वाद से प्राप्त कामधेनु व कुबेर के प्रताप से राजसी भोज कराया.
इसे देख सहस्त्रबाहू आश्चर्य में पड़ गया. जब उसने ऋषि जमदग्नि से इस रहस्य को जानना चाहा तो सीधे-सीधे महर्षि से कामधेनु को मांग लिया. लेकिन, महर्षि ने कामधेनु को इंद्रदेव की अमानत बताकर उसे देने में असमर्थता जताई. जब अत्याचारी शासक ने कामधेनु को पकड़ना चाहा तो वह स्वर्गलोक की ओर जा पहुंचीं. इस पर सहस्त्रबाहू ने ऋषि जमदग्नि व चारों पुत्रों की हत्या कर दी. रेणुकाजी अपने सतीत्व की रक्षा के लिए चीखती हुई निकट के राम सरोवर में कूद पड़ीं. रेणुका के कूदते ही राम सरोवर विशालकाय मानवाकार झील में तबदील होकर मां रेणुकाजी झील के विख्यात हो गया.
आज भी यहां ऊंची पहाडिय़ों से देखने पर रेणुकाजी झील सोई हुई नारी की आकृति में विद्यमान हैं. उधर, मां रेणुकाजी की सीख सुनकर महेंद्र पर्वत पर तपस्या में लीन भगवान परशुराम का ध्यान भंग हो गया. वह तुरंत चीख की दिशा में दौड़े और सरोवर से मां रेणुका को बाहर निकाला. मां से सारा वृतांत सुनने के बाद परशुराम अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने सहस्त्रबाहू सहित उसकी सेना का नामोनिशान मिटा दिया. पृथ्वी तुरंत ही पाप मुक्त हो गई.
तभी भगवान परशुराम ने अपनी मां रेणुकाजी को प्रतिवर्ष मिलने का वचन दिया. मां-बेटे के मिलन का प्रतीक रेणुकाजी मेले का शुभारंभ कार्तिक शुक्ल पक्ष की दशमी को होता है. अगले दिन प्रबोधिनी एकादशी को हजारों की संख्या में श्रद्घालू पवित्र स्नान कर पाप से मुक्ति पाते हैं. जबकि, कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन मेले का समापन होता है.
महर्षि जमदग्नि ने तपे का टीला पर की थी तपस्या
मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में आर्यावर्त में हैहयवंशी क्षत्रिय राज करते थे. भृगुवंशी ब्राह्मण उनके राज पुरोहित थे. इसी भृगुवंश के महर्षि ऋचीक के घर महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ. इनका विवाह इक्ष्वाकु कुल के ऋषि रेणु की कन्या रेणुका से हुआ. महर्षि जमदग्नि सपरिवार इसी क्षेत्र में तपस्या मग्न रहने लगे. जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की वह ‘तपे का टीला’ कहलाता है.
शुक्ल पक्ष की तृतीया को मां रेणुकाजी के गर्भ से भगवान परशुराम ने जन्म लिया. इन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है. अश्वत्थामा, ब्यास, बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य व मार्कंडेय के साथ अष्ठ चिरंजीवियों के साथ भगवान परशुराम भी चिरंजीवी हैं.