प्रदेश में भाजपा संगठन की भारी-भरकम फौज, फिर भी चुनाव में हार

भाजपा संगठन मंत्री पर दबी जुबान में लग रहे हैं सवालिया निशान

HNN / नाहन

प्रदेश में लोकप्रियता के ग्राफ में बरकरार मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर बेदाग छवि के प्रदेश अध्यक्ष और ईमानदार मंत्रिमंडल बावजूद इसके सत्ता का सेमीफाइनल भाजपा के हाथ से निकल गया। जैसे-जैसे संगठन और सरकार में परिवर्तन की अटकलें तेज हो रही है वैसे वैसे आरोप-प्रत्यारोप के साथ संगठन की भूमिका पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं। सवाल तो यह भी उठ रहा है कि हर विधानसभा क्षेत्र में जितने बूथ होते हैं उतने ही बूथ पालक। माना कि अर्की विधानसभा क्षेत्र में 153 बूथ थे तो इतने ही बूथ प्रमुख हुए। अब जो वोटर लिस्ट होती है उसके एक पन्ने पर एक पन्ना प्रमुख और उसके साथ अब 3 सहायक भी नियुक्त कर दिए गए हैं।

उसके बाद बीएलए, बूथ अध्यक्ष इन सबके अलावा हर विधानसभा क्षेत्र में 7 मोर्चे अलग से काम करते हैं। फिर मंडल अध्यक्ष मंडल की पूरी फौज प्रत्याशी के साथ होती है। इस प्रकार अगर संगठन की पूरी की पूरी व्यू रचना का आकलन किया जाए तो हर विधानसभा क्षेत्र में यह फौज भावी प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित करती है। सवाल यह उठता है कि आखिर इस उपचुनाव में यह पूरी फौज कहां गायब थी। सवाल यह भी उठता है कि क्या केंद्र को संगठन और संगठन की कार्यप्रणाली की गलत रिपोर्टिंग की जाती रही है। जबकि केंद्र से प्रदेश में पन्ना प्रमुखों आदि के बड़े-बड़े सम्मेलन हो चुके हैं जिनमें लाखों रुपए खर्च किए जा चुके हैं।

आखिर इन सम्मेलनों का असर क्या हार में नजर आना था। जाहिर है कहीं ना कहीं संगठन से जुड़े कुछ खास लोगों पर सवालिया निशान लग रहे हैं। सूत्रों की माने तो अर्की, जुब्बल-कोटखाई और फतेहपुर के प्रत्याशी फाइनल करने में संगठन मंत्री की भूमिका को प्रमुख माना जा रहा है। अगर यह बात सही है तो 2022 के चुनाव से पहले हाईकमान को संगठन की भूमिका को भी ढंग से खंगालना होगा। अब यदि संगठन मंत्री की भूमिका सक्रिय रूप से पाई जाती है तो फिर सुरेश भारद्वाज पर लग रहे सवालिया निशान खुद ब खुद साफ हो जाते हैं।

हालांकि जवाबदेही तो कमांडर की ही मानी जाती है मगर जब कार्यकर्ता और मंडल से लेकर मोर्चा तक को विश्वास मिला लिया जाए तो जाहिर है कहीं ना कहीं संगठन मंत्री सर्वे सर्वा साबित हुए हैं। अब यदि चुनावी वर्ष के दौरान उत्तराखंड जैसा प्रयोग हिमाचल प्रदेश में भी किया जाता है तो इसका खामियाजा 2022 में मिलना तय है। यह तो राष्ट्रीय नेतृत्व को तय करना होगा कि सरकार में बगैर किसी छेड़छाड़ अथवा परिवर्तन के एक बेहतर सुधार के साथ 2022 की चौपड़ सजानी होगी। चर्चा का विषय तो यह भी चल रहा है कि रमेश धवाला, विपिन परमार के अलावा कई ऐसे चेहरे हैं जो कहीं ना कहीं व्यक्ति विशेष की वजह से हाशिये पर आए हैं।

जिसमे एक महिला मंत्री भी शामिल है, के साथ साथ मंत्री मंडल में कई ऐसे चेहरे भी है जिनपर इनकी वक्र दृष्टि भी रही है। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री की हार को कुछ खास व्यक्तियों के साथ जोड़कर खंगाला जाना जरूरी है। अब सवाल यह उठता है कि भले ही राष्ट्रीय मीडिया मुख्यमंत्री के महंगाई वाली बात को तूल दे रहा है मगर सच यही है कि इस हार में महंगाई के साथ-साथ कार्यकर्ताओं की नाराजगी प्रमुख कारण रही है। सवाल तो यह उठता है कि संबंधित विधानसभा क्षेत्र के संगठन को अगर विश्वास में लेकर के चला गया होता तो निश्चित ही उपचुनाव भाजपा के खाते में होता। हम इस बात को इस दावे के साथ भी कह सकते हैं कि जुब्बल-कोटखाई में 56607 लोगों ने वोट कास्ट किया।

अर्की में 60550 वोट डले जिसमें रतनपाल को 27597 तो 30798 संजय अवस्थी को डले हैं। मंडी लोकसभा में 753566 लोगों ने वोट कास्ट किया है। जहां पर राजपूत लोबी ने नोटा का सोटा भी चलाया तो वही ब्राह्मण वर्ग भाजपा से नाराज नजर आया। इस सीट के ऊपर ब्रिगेडियर मजबूत और परफेक्ट कैंडिडेट थे। तो सवाल उठता है संगठन की वह फौज जिस पर इतना भारी भरकम खर्चा किया गया है वह कहां गई। फतेहपुर सीट पर 57095 लोगों ने वोट कास्ट किया जबकि जानकारों का मानना है कि यहां पर संगठन विपिन परमार की पैरवी में था, तो हारने वाले प्रत्याशी की किसने पैरवी करी थी। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिन पर मंथन किया जाना बहुत जरूरी है। 2022 के लिए अच्छा यही रहेगा कि नाराज वर्ग को साथ लेकर संगठन की बुनियाद को अधिमान देना पड़ेगा।


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